शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

मरना सिर्फ एक घटना है

मंदिर,मालिक और आदमी
कार मालिक रोज मूँदता है, आँख
जब बगल में मंदिर
और, सामने आदमी होता है
और, रोज मरता है आदमी
मंदिर-मालिक के गठजोड़ से बेखबर,
जब वह सड़क पर चलता है
वैसे इस दृश्य में
मरना सिर्फ 'एक' घटना है
और आँख मूंदना नियम.
 (2004)

रविवार, 8 सितंबर 2013

कमाऊ पूत: किश्त दो

अनायास ही अशोक का मन घर के अतीत में चला गया। शायद माँ के इस बदलाव का उत्तर पाने के लिए या यूँ ही माहौल में कुछ अजीब सा लगा इसलिए। पहले तो माँ बेटी के बीच किसी भी वक़्त चिंगारी भड़क उठती थी। रात -रात भर बहसे होती थी। जबकि घर के सारे काम जब से करने लायक हो गयी छाया ही करती थी। दोनों के बीच असंतुष्टि का कारण अभी भी उसके समझ में नहीं आया। इतना जरुर उसके जेहन में बैठ गया की नौकरी करने से माँ बाप का स्नेह बढ़ जाता है। अपनी इज्जत में इजाफा हो जाता है। लोग बाग़ आकर सलाह लेने लगते हैं। लोग नाम से नहीं पद से बुलाने लगते हैं। जैसे डॉक्टर साहब, इंजिनियर साहब, मिलिट्री वाले भैया जी वगैरह वगैरह। भरी भीड़ में लोग आप को पहचान जाते है। जिस रिश्तेदार का आपने कभी मुंह नहीं देखा, पहुंचते ही अपने निक्कमे बेटे को बोलता है- पैर छू,पहचानता नहीं क्या! ये फलाने के बेटे के हैं जो इंस्पेक्टर हो गए हैं। आजकल हर कोई उज्जवल भविष्य की उम्मीद वाले शख्स से प्यार करता है। संबंधो की प्रगाढ़ता आपके भविष्य की लगातार उन्नति पर निर्भर करती है।

दीदी की आज नौकरी लग गयी है। माँ खुश है। सबसे मनहूस और अभागी बेटी अब होनहार और नाम रोशन करने वाली हो गयी है। घर की लाडली। मानो दीदी की नौकरी के साथ ही माँ की चिडचिडाहट का अंत हुआ और प्यार का सोता फूट पड़ा। सही सही बात भी है पढाई से बड़ा आजकल कौन सद्गुण है और नौकरी से बड़ा कौन फल? माँ -बाप की भी एक मात्र आकांक्षा यही होती है की उनका बेटा पढ़े और नौकरी करे। जिससे उनका नाम रोशन हो अपने लिए तो वो कुछ चाहते नहीं। पर मनोज और छाया इत्ती छोटी सी बात को समझते ही नहीं। यही सब सोच रहा था की छाया ने आवाज दी भैया नहा लीजिये खाना बन गया है।

रात को महफ़िल जमी सब इकठ्ठा हुए। अशोक ने जिम्मेदारी से पूछा- पापा जी कैसा मैनेजमेंट है शादी का। कोई प्रॉब्लम ? पापा जी -नही बेटा अब तुम आ गए हो सब बढ़िया ही होगा। तभी माँ कटे हुए फल लेकर आई -लो बेटा खा लो। माँ ने खातिरदारी के लहजे में कहा। अशोक-अभी तो खाना खाया है माँ,..अरे मनोज तुम लो न। मनोज -अरे भैया आप खाइए मैं तो घर में ही रहता हूँ। अशोक -अरे छाया तुम भी खाओ ना और बच्चों भी बाँट दो। माँ बीच में ही बोल पड़ी -तुम तो ऐसे कर रहे हो जैसे मैं इनको कभी देती ही न होऊं। अपना चेहरा नहीं देख रहे हो कितना सूख गया है। पिता जी -हाँ सही तो कह रही है माँ। अब जल्दी से खा लो कल बहुत सार काम होगा।

कविता की शादी को एक साल हो गए थे। घर में सब कुछ ठीक चल रहा था अब छाया और मनोज के ऊपर दबाब और बढ़ गया था। भैया और दीदी के आदर्श उन पर ज्यादा दबाब बनाने लगे थे। दिन भर कितनी ही बार उन्हें "कुछ बनो " का प्रवचन सुनना पड़ता था। शिवमोहन और उनकी पत्नी बेटे के अमेरिका जाने से फूले न समाते थे। मानो बड़ा बेटा बिना कंधे में उठाये ही श्रवण कुमार का कर्तव्य निभा रहा हो। सबसे कहते फिरते आज के जमाने में सबसे बड़ी तीर्थयात्रा विदेश जाना है माने अमेरिका। वहाँ वही लोग जाते है जिन्होंने अच्छे कर्म किये हैं। मेरे बेटे ने पूरे गाँव का नाम ऊँचा कर दिया। देश का नाम भी इससे विदेशों में बढ़ता है।

पर बेचारे मनोज के कुछ न कर पाने से बड़े दुखी थे। धीरे-धीरे उनको डर सताने लगा की अब ये कुछ नहीं कर पायेगा। लगता है घर में ही रहेगा। बस बच्चे के कुछ करने के उधेड़बुन में दिन भर डूबे रहते है। एक दिन मनोज को बड़े प्यार से समझाया -बेटा तू भी कुछ कर ले। एक काम क्यूँ नहीं करता कोई बिज़नस शुरू कर दो। कुछ पैसे मेरे पास पड़े है, कुछ भैया से मांग लो। मनोज -पापा इतनी जल्दी क्या है? पिता जी -झुन्झुलाते हुए अब नहीं तो क्या मेरे मरने के बाद करेगा ! मैं चाहता हूँ तू भी संभल जा एक दो पैसे कमाने लगे। पर कहते हैं अपना सोचा कब होता है। मानो शिव मोहन जी के घर को किसी की नजर लग गयी। अगले दिन शिवमोहन जी घर जल्दी आ गए। आते ही आवाज दी छाया …छाया -जोर से- हाँ पापा जी -और आश्चर्य से- आज इतनी जल्दी? पिता जी-हाँ तबियत ठीक नहीं है। पीछे से माँ -अरे क्या हुआ? बुखार है क्या? मनोज को फ़ोन कर दो मेडिकल स्टोर से कुछ दवाइयां लेता आएगा।

मनोज को पहुँचने में बिलकुल देर नहीं लगी। बीमारी की खबर सुनकर दोस्त भी साथ आ गए। शिवमोहन जी की तबियत बिगड़ती जा रही थी। मनोज ने पिता जी के चहरे में अजीब सा डर और बेचैनी देखी। पूछने पर सिर्फ इतना बुदबुदाये की शरीर सुन्न पड़ता जा रहा है। आनन फानन में मनोज अस्पताल ले कर भागा। उनका पूरा शरीर निरीहता और आशंका की गोद में सिकुड़ता जा रहा था। मनोज अपनी व्याकुलता को जब्त करने के लिए मन ही मन प्रार्थना कर रहा था। मन ही मन अपने को कोस रहा था। वह उस समय घर पर क्यूँ नहीं था। जल्दी अस्पताल ले आता। डॉक्टरों ने सीधे उन्हें आईसीयू में भर्ती किया। बाहर मनोज के दोस्त छाया और माँ सब आशंकित थे। अनिश्चितता और से भय से पूर्ण सब की नजरें आईसीयू की तरफ गडी थीं। अनहोनी की आशंका सबके के चहरे पर फ़ैल गयी थी। तभी डॉक्टर बाहर निकला और बोला-किसी बड़े को अन्दर भेजो। मनोज -हाँ कहिये मैं उनका बेटा हूँ। डॉक्टर बेड की तरफ इशारा करते हुए-आपके पिता जी का लेफ्ट साइड पैरालाइज्ड हो गया है। मनोज को गहरा सदमा लगा। आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा। मानो सब कुछ ख़तम हो गया। तभी डॉक्टर ने कंधे झकझोरते हुए कहा –पेशन्स से काम लो ठीक हो जायेगा इन्हें दिल्ली ले जाओ। मनोज की चेतना लौटी वो अचानक बड़ा हो गया था। दर्द और पीड़ा ने उसे समझदार बना दिया। कर्त्तव्य ने उसे सख्त कर दिया। कहते हैं दुःख की घडी में प्यार अँधा नहीं होता बल्कि सेवा और कर्तव्य की ज्योति बनाकर पथ प्रदर्शित करता है। मनोज पिता जी को हर कीमत पर स्वस्थ देखना चाहता था। पिता जी को ले के दिल्ली आया।

जल्दी ही कविता दीदी और जीजा जी भी दिल्ली पहुँच गए। दिल्ली में रहने वाले एक-दो रिश्ते दार भी आ गए। शिवमोहन जी की तबियत धीरे-धीरे सुधारने लगी। माँ ने अमेरिका फ़ोन किया। अशोक परेशान हो गया उसने कहा तुम सब लोगों में मुझे तुरंत क्यूँ नहीं बताया। माँ ने धीरज औरे संयमित स्वर में कहा -बीटा उस समय तुम करते भी क्या ? बेचैन और लाचार आवाज में असोक ने कहा -माँ मैं कुछ पैसे पापा जी के अकाउंट में डाल रहा हूँ। मनोज् को कहना निकाल लेगा...मै जल्दी ही आ रहा हूँ।

रविवार, 11 अगस्त 2013

कमाऊ पूत: किश्त एक

शिव मोहन जी का अभी भी गाँव में घर का अस्तित्व है। जमीन जायदाद इतनी है की दो परिवार का पालन पोषण हो सके। बच्चो का भविष्य बनाने के लिए वो शहर आ बसे। हालाँकि शिव मोहन जी का भविष्य वही गाँव के सरकारी स्कूल में ही बना। बस एकबार शहर आ कर टाइपिंग की परीक्षा दी थी। उसमे पास होते ही बिजली विभाग में नौकरी मिल गई। इस नौकरी के लिए वो गाँव में ही रहने वाले उसी विभाग के मुख्य अभियंता (चीफ़ इंजीनियर) श्रीवास्तव जी का आभार मानते है। पर सब कहते थे की भविष्य सवर गया। सही भी है आज के ज़माने में भविष्य का संबंध सरकारी नौकरी से है। चाहे वो जैसी भी हो पर सफलता और सुख की एक मात्र कसौटी है।

शहर में चार कमरे का घर है। छोटा सा आँगन बनाना वो नहीं भूले। शौचालय और इन्सान तो शहरी घर के मानचित्र का अभिन्न अंग है। इसके उपयोग में थोड़ी तबदीली जरूर आई है। गाँव में लोग लोटा ले कर दूर तक जाते है पर यहाँ बाल्टी लेकर सिर्फ शौचालय तक जाना पड़ता है। सही बात भी है इकठ्ठा शहरातू तो नहीं हुआ जा सकता। शहरी आचार-विचार और भाषा सीखने में वक़्त तो लगता है। जैसा भी है अब उनका शहर में घर है, चार बच्चे है, दो लड़के दो लड़कियां। बच्चो की तालीम में उन्होंने कसर न छोड़ी। जिससे बच्चो का भविष्य उज्जवल हो और बड़ा ओहदा प्राप्त हो। बड़ा बेटा अशोक पढने में तेज था। माँ बाप दोनों के स्नेह का पात्र, लाडला बेटा। उसे इंजीनियरिंग करने के लिए शहर के बाहर दूसरे बड़े शहर भेज दिया। प्राइवेट कॉलेज था। फीस ज्यादा थी। पर बच्चे के भविष्य के लिए उन्होंने बड़े गर्व से बैंक से लोन लिया। छोटा बेटा मनोज पढने में लध्दर था। खेलकूद और दोस्तों के साथ उसका मन अधिक लगता था। घर वाले कहते ये जिन्दगी को समझता ही नहीं जब देखो घूमता ही है। मनोज हँसते हुए कहता -अभी न मज़ा करेंगे तो कब करेंगे, जब बड़े हो जायेंगे, पढ़ कर समझदार हो जायेंगे, तब? इस पर माता जी झुंझलाकर कहती -चल हट जबान मत लड़ा। मनोज चुप हो जाता और इधर उधर चला जाता। बड़ी बेटी कविता जिसका संसार खुद ही तक था उसकी शिकायते कभी ख़तम न होती। माँ बेटी में अक्सर मौन व्रत बना रहता। टूटता तभी जब कोई रिश्तेदार या मित्र आ जाते।

एक बार घर में मामा जी पधारे। गाँव से आये थे कुछ कोर्ट कचहरी का काम था। इधर बहुत दिनों से दीदी और जीजा से मुलाकात भी नहीं हुई थी। पंहुचते ही सावित्री बिट्टी आ डटी और बालेन्द्र घर में सब कुछ ठीक ठाक है न? मामा जी बिना उत्तर दिए ही पूंछ बैठे अरे घर में कोई है नहीं क्या? बिट्टी शुरू। अरे क्या बताऊँ ये घर नहीं भूत बंगला है। अशोक जब से इंजिनियर बना उसे घर आने का वक़्त नहीं मिलता। पहले पढ़ाई के लिए बाहर था अब नौकरी के लिए। और जो ये हमारी दाई है। कौन दाई ?मामा जी चौंक पड़े। अरे यही कविता, काम की न काज की दुश्मन अनाज की। जब देखो किताब में मुंह गाड़े रहती है, पता नहीं बेचारी की कब नौकरी लगेगी। मोर बिटिया दिन भर पढ़ती रहती है पर भगवान् है की सुनता ही नहीं। तभी बगल वाले कमरे से कविता की झनझनाती हुई आवाज आई। मम्मी मैंने कहा था मेरे बार में बात न करना। मामा जी को जरा मौका मिला तो पानी के लिए तड़प उठे। बिट्टी जरा किसी को आवाज देना पानी ले आये।? बिट्टी चिल्लाई - ये छाया दिखाई नहीं देता! मामा जी आयें हैं। कुछ्ह पानी पीने के लिए नमकीन बिस्कुट तो ले आ। फिर मामा जी की ओर देखकर -ये छाया तो और जाहिल है, बिलकुल गोबर गणेश! दिन भर टी .वी .में गडी रहती है या कन्ठेप्पी लगाये मटकती रहती है। कॉलेज तो इसका मानो सर्कस खाना है। कभी नाटक का रिहर्सल होता है तो कभी डांस की प्रैक्टिस, नहीं तो कहती है आज मेरा भाषण प्रतियोगिता है। पढ़ाई में तो इसका रत्ती भर मन नहीं लगता। हम तो इसके पापा को पहले ही बोले थे, किसी तरह से बारहवीं पास हो गयी है। कुछ कढाई -बुनाई का कोर्स करवा दो। सभी को थोड़ी न सरकारी नौकरी रखी है। कविता और अशोक की बात दूसरी है। वो शुरू से ही फर्स्ट आते थे। तभी छाया नाश्ते का प्लेट लेकर पहुँची। नमस्ते मामा जी।

मामा जी, नमस्ते ,और बेटी तुम भी पढाई -लिखाई कर लो। स्कूल की बात और थी। वहाँ थोड़ा गीत संगीत में भाग लेना ठीक था। अब तुम कॉलेज में हो ,पास तो हो जाओगी न !छाया मुस्कुराते हुए - जी मामा जी। और घर में सब कैसे हैं, मामी, नानी, मुन्नी दीदी। पिछले साल दीदी की शादी में कितना मजा आया था, है ना मामा जी ! तभी माँ चीख पडी -देखा वो पूछ कुछ और रहे हैं। पर इसको ! हमारे कर्म ही फूटे थे जो ये पैदा हुई। कहाँ बेचारी कविता बिना खाए -पिए किताबों में गडी रहती है और कंहा ये ? अब जाओ जल्दी से मामा जी के लिए पराठा सब्जी बना दो भूंखे होंगे। तभी घंटी बजी। माता जी बोलीं -देखना तो छाया कौन है? छाया दरवाजा खोलते हुए, अरे !पापा जी आप।हाँ मामा जी का फ़ोन आया था। आ गए क्या? छाया -जी ..माँ के साथ बैठे हुए हैं ,निंदा रस जारी है। माँ -आने की आहट सुनकर- मैं चलती हूँ वो आ गए हैं। आज तो रुकोगे न? मामा जी सहमती में मुंडी हिलाई।

शिवमोहन जी घर में घुसते ही- मनोज अभी घर नहीं लौटा? अन्दर अन्दर से माता जी की झल्लाती हुई आवाज आई-आया था खाना खाने। मामा जी ने चरण स्पर्श किया। शिवमोहन जी कुछ मंत्र भुनभुनाये और लम्बी साँस खींच कर बोल- आपका काम हो जायेगा आप परेशान मत होइए। मैं तो इस मनोज से परेशान हूँ। अशोक है की रोज तरक्की कर रहा है, विदेश का भी ऑफर आया है। और ये मनोज आवारा की तरह इधर उधर घूमता रहता है। घर में तो इसके पांव टिकते ही नहीं। पता नहीं क्या करेगा! भगवान जाने? कविता के कमरे में झाँका वो पढ़ रही थी। छाया को आवाज दी। बेटा जरा पानी देना। मामा जी ने सुझाव दिय - जीजा जी अब बेटिओं की शादी कर दीजिये अगले साल और फुर्सत होइये। शिवमोहन जी -हाँ लड़का तो देख रखा है। बस कविता का ssc का रिजल्ट आ जाये। माम जी - सही बात है। नौकरी लग जायेगी तो सामने वाला भी दहेज़ के लिए कम मुंह खोलेगा। शिवमोहन जी ने लम्बी सी "हाँ "की राहत भरी ध्वनि निकाली। तभी छाया कमरे में घुसते हुए- पापा जी पानी और मामा जी खाना तैयार हो गया है,खा लीजिये। फिर मुझे अपना कार्यक्रम देखना है कल नहीं देख पाई थी, मनोज के चक्कर में। ऐसा लगता है वो न देखे तो धोनी क्रिकेट ही न खेले। शिवमोहन जी गिलास रखते हुए बोले-मनोज को फ़ोन कर देना सब्जी के लिए बोलना मामा जी हैं आयें हैं पनीर लेते आयेगा। और कहना दो दिन से चक्की में आटा पड़ा है वह भी लेते आएगा। हद है ये लड़का।

अगले साल। जून की गर्मी। शिव मोहन जी के घर में विवाह की गर्मी। शहर वाले घर मेहमान इकठ्ठा हो गए है। जगह कम उत्सव गीत की झंकार ज्याद। इंजिनियर साहेब को छुट्टी नहीं है। बाहर का सारा काम मनोज के माथे मढ़ गया है। कविता की सरकारी नौकरी लग गई है। शादी के लिए छुट्टी पर है। छोटी बहन छाया दीदी की खरीददारी में बड़े उत्साह से लग गई। माँ जी दिन भर बड़ी बेटी की सफलता का गुण गान करती। पधारी हुई औरतो को अपने बढ़े हुए रुतबे का एहसास कराती। इधर घर में मदों की सूचियाँ तैयार होती। मनोज दिन भर भागा भागा फिरता। कभी टेंट वाले के पास आर्डर देने जाता तो कभी हलवाई वाले को खाने का मेनू समझाता। तिलक का सामान भी खरीदना है। सुबह शाम जब वक़्त मिलता शादी का कार्ड भी बांटता। कार्ड बांटना सबसे झंझट का काम था। सारी रिश्तेदारियां गाँव में थी। पर कोई गम नहीं, मनोज के पास बहुत संगी साथी हैं।

कहते हैं निक्कमों की फ़ौज होती है। जिनके पास समय ही समय होता है। पद वालों के पास चापलूस होते हैं जो वक़्त के पाबंद होते हैं, अपने काम के वक़्त ही मिलते हैं। ज्ञनियो के अनुयाई होते हैं जो एक दूसरे का समय बर्बाद करते है। बेचारे निकम्मे ! सुख दुःख में साथ होते है। घर में सुबह-सुबह गाली खाते हैं रात को फिर घर पहुँच जाते है। पहुँचते ही पूंछते है पापा कोई काम हो तो बताना। चिंता मत करिए मैं कल मम्मी को डॉक्टर को दिखा लाऊंगा और उधर से सिलेंडर भी लेता आऊंगा। अभी मैं माँ के पास बैठा हूँ आप सो जाओ, कल आपको ऑफिस भी जाना है। मनोज भी माँ बाप के पास रहने वाले इन्ही अपने से बेफिक्र निक्कमो में से एक था। जिसके पास अभी कामों का अम्बार था। पर वो दोपहरी में घर से बाजार का दसिओं चक्कर लगाने के बाद भी उतना ही तरोताजा। चांदनी वाले के पास खड़ा भी उतना ही मस्त। उधर छाया एक और निक्कमी। सुबह-सुबह सबको चाय और नाश्ता बनाती दिन भर साड़ी, श्रृंगार और पार्लर की दूकान में दीदी के साथ घूमती। लेकिन आज घर लौटते हुए उसका मन थोडा दुखी था। माँ ने दीदी के लिए बीसियों साड़ी खरीदी। एक उसे भी पसंद आ गयी। साड़ी थोड़ी मंहगी थी। माँ बोल उठी तुम्हारी शादी में खरीदेंगे अभी इतना मंहंगा ले के क्या करोगी? घर पहुँचते ही मेहमानों के साथ फिर ठहाके में खो गयी और निकम्मेपन का रस लेते हुए सो गयी।

शादी को एक ही दिन बचे हैं। इंजिनियर साहब भी आ गए है। बड़े बेटे के आते ही माँ सब कुछ भूलकर उसकी सेवा में लग गयी। इधर छाया को आवाज दी जरा कूलर चला देना और खिड़की खोल देना गरमी बहुत ज्यादा है। उधर मनोज को आदेश दिया -मोटर चला देना बाथरूम में ठंडा पानी भर जाए और एक बार देख लेना शैम्पू साबुन रखा है की नहीं। खुद शादी के लिए बने तमाम मिठाइयों को लेकर बेटे के पास आईं। अशोक अपने प्रति उमड़ते ममत्व और घर वालों के प्रति जारी होते फरमान का द्वंद नहीं समझ सका। इस बार कविता के प्रति भी माँ का व्यवहार बदला हुआ था। कामचोर और मनहूस कविता अब कर्मठ एवं लड़की हो चुकी थी।

***

अभी बाकी है। बकाया हिस्सा..

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

उम्मीद..















कुछ इस तरह..

दस बाय बारह का कमरा है
आज की ज़िन्दगी जहाँ बसी है,
एक समूची दुनिया अपने औज़ारों के साथ।
बिखरी किताबें, फैले कपड़े,
टूटी कुर्सी, अधमजे बर्तन
इन सबके बीच बैठा
एक आदमी खोजता है, ज़िन्दगी की गलियाँ।

अपनी ताकत को बटोरते, अधमरे पेट के साथ,
वह नहीं जायेगा गाँव,
नहीं ताकेगा आकाश,
जहाँ तारों की गिनती मुश्किल,
नहीं दौड़ेगा उन पगडंडियों में, जो ख़त्म नहीं होती थी।
वह यहीं रहेगा दस बाय बारह के कमरे में,
चार लीटर पानी और पाँच किलो आटे के साथ

क्योंकि बड़े बनने का रास्ता
अब नदियों के किनारे से नहीं, नालियों के ऊपर से जाता है।

और गाँव में तो फ़िर सूखे की उम्मीद है।

मंगलवार, 11 जून 2013

थोड़ा पर्सनल..

शादी के तीन साल। नौकरी के दो साल। सब रोजगार के बाद शादी करते हैं। शायद शादी को भार समझते हैं। हमने शादी की। रोजगारी -बेरोजगारी से इसका कोई सम्बन्ध नहीं समझा। क्यों की हमारे लिए शादी प्यार का ही उत्सव है। 

कुछ पहले प्यार फिर नौकरी तब शादी। नौकरी नहीं हुई तो प्यारे -प्यारी नौकरी वाले के पास उड़ जाते हैं। इसमे माँ -बाप भी मदद करते हैं। कुछ रोजगार विहीन होकर अभी शादी विहीन बैठे हैं। कुछ पीएचडी भी हो गए हैं, साहित्यिक और फ़िल्मी लिक्खाड़ भी हो गए हैं, इस दौरान वो कई बार प्रेमी भी बने होंगे, अब सामजिक ठेकेदार बन गए हैं, कई सरकारी गैर-सरकारी नियमों के अनुसार 'ओवरऐज' हो गए हैं , पर शादी के लिये नहीं। पूछा सर अब क्या करोगे ? बस यार नौकरी लग जाये शादी कर लेंगे ! 

मेरी दोस्त हमें जब प्रेम हुआ तब रोजगार नहीं था न ही रोजगार का हिसाब -किताब रखने वाला समाज। हमारे लिए शादी प्रेम के उत्सव का सामाजिक रूप है। दोनों के दिल में पल रहे शुभ और सुन्दर भावों की सामजिक अभिव्यक्ति थी। मेरी दोस्त हमारे लिए शादी प्रेम का बंधन नहीं। एक पल के वादे का सघनतम रूप है। जीवन संघर्ष में एक कोमल एहसास है। नैराश्य में टिमटिमाती एक लौ है। दुनिया को सुन्दर बनाने का एक प्रयास है। एक साथ दुनिया को प्यार करने की सीख है। 

आओ मेरी दोस्त शादी और जन्मदिन की ख़ुशी में कैंडल जलाएं.. रोशनी फैलाएं..!!